Tuesday, September 30, 2008

ई-मेल की गली के पेंचोखम



विष्णु राजगढ़िया
आजकल पोस्टमेन का इंतजार नहीं रहता। न चिटि्ठयों का। अब तो ई-मेल है। जब भी कंप्यूटर पर बैठो, पहले ई-मेल चेक करने की जल्दी। भले ही कितना इंपोर्टेंट वर्क क्यों न छूट रहा हो। ई-मेल देखने से ज्यादा जरूरी काम भला और क्या हो सकता है। इंटरनेट ने मनुष्य को घर-बैठे तत्काल पूरी दुनिया से जोड़ने की अद्भुत ताकत दे दी है। कुछ ही पलों में चाहे जितनी तसवीरें और फाइलें वल्र्ड के किसी भी कोने में बैठे आदमी को भेज दें।


पहले डाकिये के आने का एक टाइम होता था। उसके बाद नेक्स्ट दोपहर तक के लिए इंतजार खत्म। लेकिन अब तो ई-मेल के लिए हर घंटे-आधे घंटे पर इनबॉक्स चेक करना नेसेसरी लगता है। खासकर जिन लोगों का प्रोफेशन कंप्यूटर से जुड़ा है, जो घंटों कंप्यूटर पर बैठते हैं और जिनके लिए इंटरनेट यूज करना बिलकुल सहज काम हो, उनके लिए तो दिन भर में कई-कई बार ई-मेल चेक कर लेना बिलकुल नेचुरल है। उसमें भी जिन लोगों ने दो-तीन ई-मेल आइडी बना रखे हों, उनका तो कहना ही क्या।


जिनके इनबॉक्स में कोई गुड न्यूज की कोई ई-मेल आती हो, उनके लिए कंप्यूटर का मतलब बु़द्धू बक्सा नहीं बल्कि सुखद अनुभव होता है। लेकिन जिनके पास ई-मेल के नाम पर अनवांटेड मेल आते हों, उनकी परेशानी देखते ही बनती है। हर दिन आपके पास तरह-तरह की लाटरी, बिजनेस प्रोपोजल इत्यादि के लुभावने ई-मेल आ सकते हैं। ऐसे ई-मेल से टाइम का कबाड़ा होता है। इसलिए खुद ई-मेल कंपनियों ने स्पैम का एक सेपरेट फोल्डर बना दिया है। आपके नाम पर भेजी गयी ज्यादातर फालतू ई-मेल खुद ही स्पैम फोल्डर में चली जायेंगी। यह जानना सचमुच इंटरेिस्टंग होगा कि किस सिस्टम से ऐसा होता है। हालांकि कई बार आपके लिए उपयोगी और जरूरी ई-मेल भी स्पैम फोल्डर में जा सकता है। इसलिए अपन तो इनबॉक्स के साथ ही स्पैम फोल्डर को भी देखना जरूरी समझते हैं। चेक करने के बाद ही स्पैम फोल्डर को इंपटी करते हैं। वैसे भी स्पैम ई-मेल के सेंडर और सब्जेक्ट को देखते ही समझ में आ जाता है कि इसे खोलने का मतलब टाइम वेस्ट करना है।


लेकिन उस ई-मेल का क्या करें जिसका सेंडर आपका करीबी हो और सब्जेक्ट हो- मोस्ट अरजेंट? ऐसे ई-मेल को आप तुरंत खोलेंगे। लेकिन पता चला कि कुछ भी अरजेंट नहीं। उसमें तो कोई सस्ता जोक या कोई एडवाइस या शुभकामना संदेश या फिर कोई उपदेश है। बहुत से ई-मेल में कोई सब्जेक्ट ही नहीं होगा। लेकिन साथ में कोई ऐसा अटैचमेंट होगा जिसे डाउनलोड करने और खोलने में कंप्यूटर के पसीने छूट जायें। संभव है कि जिस फाइल फोरमेट या सॉफ्टवेयर में वह अटैचमेंट भेजा गया हो, उसे खोलने की सुविधा आपके कंप्यूटर में न हो। ऐसे में वैसे ई-मेल को खोलो तो मुिश्कल, न खोलो तो मुिश्कल। कई बार ऐसे ई-मेल कई-कई दिन इनबॉक्स में पड़े रह जाते हैं, अनखुले। लेकिन इन्हें भेजने वाला आपका कोई फास्ट फ्रेंड, कोई रिलेटिव, कोई कलीग हो सकता है। आपको हर बार लगेगा कि आप उस ई-मेल को न खोलकर उस व्यक्ति की उपेक्षा कर रहे हैं। लेकिन उसे खोलने से टाइम खराब होने का खतरा रहेगा।


ऐसे लोगों के ई-मेल आपके लिए मनोरंजन या ज्ञानवर्द्धन का इंस्ट्ूमेंट हो सकते हैं। लेकिन कोई जरूरी नहीं कि काम के वक्त सबके पास हमेशा टाइम हो। जबकि ऐसे ई-मेल की जरूरत से भी इंकार नहीं कर सकते। आखिर कुछ तो पास टाइम हो। लिहाजा, जो ई-मेल कोई जरूरी मैसेज या किसी प्रेिक्टकल यूज के लिए नहीं बल्कि जस्ट फोर फन या टाइम पास या गि्रटिंग्स के लिए भेजे गये हों, उनके सब्जेक्ट में इस बात को क्लीयर करना हेल्दी प्रेिक्टस मानी जायेगी। साथ ही, एटैचमेंट में हैवी फाइलें और हाइ-रीजोल्यूशन फोटो भेजने के बदले यह कलकुलेट करना जरूरी है कि कैसा एटैचमेंट भेजें जो सामने वाले के लिए प्रोब्लम क्रिएट न करे। अगर भावना में बहकर हर जान-पहचान के आदमी के पास भारी-भरकम ई-मेल भेजने के बजाय सिर्फ जरूरी लोगों के पास ईजी फोरमेट में तथा सब्जेक्ट की लीयर जानकारी के साथ भेजा जाये तो आपके ई-मेल को कई-कई दिनों तक इनबॉक्स में अनरीड मैसेज के रूप में पड़े रहने की दुर्गति नहीं झेलनी पड़ेगी। वरना कभी वह दिन भी आयेगा जब कंप्यूटर आपके करीबी लोगों के भी कचड़ा ई-मेल को खुद ही स्पैम फोल्डर में फेंक देगा।


आइ-नेक्स्ट 01-10-2008

Monday, September 22, 2008

रिलेशन, इमोशन और मीडिया


विष्णु राजगढ़िया
लोग कहते हैं कि अब हम उस दौर में पहुंच गये हैं जहां सेंटिमेंट का कोई मतलब नहीं रहा। मेरे एक मित्र काफी कांफिडेंस से कहा भी करते हैं कि यार मेरे पास सेंटिमेंट-वेंटिमेंट के लिए फालतू टाइम नहीं है। मीडिया के बड़े हिस्से का भी यही कैलकुलेशन है कि अब ह्यूमेन एंगिल और सॉफ्ट स्टोरिज की कदर नहीं। उनके रीडरिशप सर्वे चाहे जितने भी साइंटिफिक होने का क्लेम करते हों, यही कनक्लूड करते हैं कि आज अगर मास मीडिया को इतनी हार्ड कांपिटिशन में सरवाइव करना हो तो धूम-धड़ाका टाइप मैटेरियल ही सहारा है। हालांकि इंस्टेंट एक्साइटमेंट पैदा करके अचानक चर्चा में आने वाले टीवी चैनलों या पत्र-पत्रिकाओं की दुर्गति भी हमने देखी है। जबकि अब एक छोटा-सा एक्जाम्पुल काफी राहत देने वाला है। हिंदी के एक ब्लॉग पर एक लेडी डॉक्टर के संस्मरण पर पाठकों के जबरदस्त रिस्पांस से मीडिया-मैनेजरों को बहुत कुछ सीखने की ओपुरचुनिटी मिल सकती है।रांचीहल्ला डॉट ब्लागस्पॉट डॉट कॉम पर डॉ भारती कष्यप ने लिखा है- ´हाउ टू डांस इन द रैन । ´ इसे अंग्रेजी में पब्लिश किया गया है जबकि ब्लॉग हिंदी का है और इसके मैिक्समम रीडर भी हिंदी के ही हैं। लेकिन इस पोिस्टंग पर पहले ही दिन 14 रीडर का रिएक्शन आना काफी पोजिटिव सिगनल है।पहले देखें कि आई-स्पेशलिस्ट डॉ भारती ने लिखा क्या है। इस संस्मरण के अनुसार डॉ भारती के क्लीनिक में एक सुबह एक ओल्ड-एज पेशेंट आया। उसकी आंख में ग्लूकोमा का आपरेशन हुआ था। उसे पोस्ट-ओपरेटिव ड्रेसिंग करानी थी। उस वृ़द्ध मरीज ने अपना इलाज जल्द करने का आग्रह किया था। डॉ भारती ने उसकी ड्रेसिंग पहले करा दी। इस दौरान यह जानने का प्रयास किया कि आखिर उसे जल्दबाजी क्यों है। पता चला कि उस वृ़द्ध की पत्नी किसी अन्य अस्पताल में भरती है और उसे नाश्ता कराने के लिए जाने की जल्दबाजी है। वृद्ध ने यह भी बताया कि पत्नी पिछले पांच साल से अल्जामर रोग की िशकार है और किसी को पहचानती तक नहीं। अपने पति को भी नहीं। इसके बावजूद उसका पति हर सुबह अस्पताल जाकर उसके साथ ही नाश्ता करता है। इस पर डॉ भारती ने सरप्राइज होकर पूछा कि जब वह आपको पहचानती तक नहीं, इसके बावजूद आप हर सुबह जाकर उसके साथ ही नाश्ता क्यों करते हैं, इस पर वृद्ध ने जवाब दिया कि वह मुझे भले ही नहीं पहचानती हो, मैं तो जानता हूं कि वह कौन है।इस संस्मरण के सहारे डॉ भारती ने बताना चाहा है कि यही वह सच्चा प्रेम है जिसकी कामना हम अपने जीवन में करते हैं। सच्चा प्रेम न तो शारीरिक होता है और न रोमांटिक बल्कि हम जो हैं, जैसे हैं, उसी रूप में एक-दूसरे को पसंद करें, करते रहें, तभी सच्चा प्रेम है। इस संस्मरण को ब्लॉग के एडीटर नदीम अख्तर ने इस सवाल के साथ पब्लिश किया है- ´क्या आज हम अपने जीवन में इस तरह के रिष्तों की डोर मजबूती से थामे रहते हैं? बुढ़ापा सबको आयेगाण् जरूरत है अपने रिश्तों की बुनियाद मजबूत करने की, ताकि अंत समय तक आपको अपने साथी का साथ मिले ।´इस संस्मरण और इसके साथ ऐसे उपदेश को आधुनिक मीडिया-मैनेजर फालतू चीज मानते हैं। अनसेलेबुलण् अनरीडेबुल। ऐसी चीजों से न तो अखबार का सकुZलेशन बढ़ेगा और न टीवी चैनल की रेटिंग। लेकिन इस संस्मरण को मिले रिस्पांस ने साबित कर दिया कि अगर आपके लिए माकेZट ही प्रायोरिटी है तो भी अच्छी चीजों के जरिये भी अपने अखबार की बिक्री और चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते हैं। सनसनी से वन-टाइम एचिवमेंट हो सकता है। लेकिन अच्छी चीजें पढ़़कर जुड़े पाठक किसी सच्चे प्रेम की तरह जीवन भर साथ निभायेंगे। जिस तरह वह वृद्ध अपनी पत्नी का साथ निभाये चला जा रहा है। क्या मीडिया खुद के लिए ऐसे सच्चे साथियों की तलाश करता है? आइ-नेक्स्ट 20-09-2008 में प्रकािशत

Sunday, September 21, 2008

Tuesday, September 16, 2008

Vishnu Rajgadia, as Director of Prabhat Khabar Institite of Media Studies, Ranchi, Dec. 2006