Tuesday, August 26, 2008

राइट टू फन


विष्णु राजगढ़िया
आजकल नये-नये अधिकारों का जमाना है। हर इंडियन सिटिजन को आज राइट टू इनफोरमेशन मिला हुआ है. राइट टू फूड के कंसेप्ट ने स्कूल गोइंग छोटे बच्चों को मीड-डे मिल दिलाया हैं। राइट टू वर्क के एक शुरूआती एक्सपेरिमेंट के बतौर नरेगा कार्यक्रम चल रहा हैं राइट टू हेल्थ की बात हो रही है और इस दिशा में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को एक बड़ा कदम माना जा रहा है. राइट टू एडुकेशन और राइट टू जिस्टस की भी बात जोरों से चल रही हैं ऐसे दौर में सड़क किनारे बड़ा-सा एक होर्डिंग कुछ अलग ही कहानी सुनाता मिला. लड़कियों के लिए बने किसी टू-व्हीलर के इस विज्ञापन में एक मासूम-सा सवाल पूछा गया था- `व्हाई ऑल फन फोर ब्वायज ओनली?` इसमें एक अल्हड़ किशोरी यह दावा करती नजर आ रही थी कि हमें भी मौज-मस्ती का अिèाकार मिले, यानी राइट टू फन. वाह, क्या आइडिया है। वह होर्डिंग किसी टू-व्हीलर की बिक्री बढ़ाने का एडवरटाइजमेंट मात्र ही था. लेकिन उसकी भावना आज देश और दुनिया में बह रही नयी हवा की खबर सुना रही थी. राइट टू फन के रूप में यह राइट टू इक्वलिटी की बात है. लड़कियों को भी लड़कों जितनी स्वतंत्रता मिले. जेंडर का कोई दुराग्रह न रहे. विज्ञापन चाहता है कि लड़कियां भी अब सड़कों पर मजे से टू-व्हीलर उड़ाती चलें और उस कंपनी की बिक्री बढ़े. लड़कियों के लिए टू-वहीलर की राइडिंग सिर्फ ट्रेवलिंग की जरूरत तक सीमित न रहे बल्कि मौज-मस्ती का भी पार्ट बने. क्या वाकई लड़कियों के लिए राइट टू फन का स्लोगन जरूरी है ? क्या किसी ने उन्हें सड़कों पर बाइक या मोटर चलाने से रोका है? इस सवाल के जवाब में हम कह सकते हैं कि इस मेल-डोमिनेटेड सोसाइटी ने फिमेल को सड़कों पर आने और मोटर चलाने दिया ही कब था जो उन्हें रोका जाता? आज भी छोटे शहरों, कस्बों में लड़कियां सड़कों पर साइकिल पर पैंडल मारती हैं तो मानो पुरूषों की आंखों में तीर की तरह चुभती हैं. फिर छोटे शहर हों या महानगर, हर जगह सड़कों पर वाहन चलाती वुमेन को कॉमन प्राबलम से गुजरना पड़ता है. कुछ मनचले जिनमें उम्रदराज लोग भी शामिल होते हैं, जान-बूझकर उनके रास्ते में रुकावट डालते हैं, बगल से गुजरने या पास देने या पास मांगने के दौरान टीजिंग हरकतें करते हैं. सड़क पर बाइक या कार चलाते हुए कोई वुमेन गुजरती है तो अगल-बगल खड़े लोग घूर-घूर कर देखते हैं, कमेंट्स करते हैं. लड़कियां सड़क पर ड्राइविंग करना चाहें तो गार्जियन कहते हैं कि तुम ठीक से नहीं चला पाओगी, एक्सीडेंट हो जायेगा. गार्जियन की चिंता जेनुइन है. लेकिन उनके लिए राहत की एक नयी बात सामने आयी है. देश की एक कार बनाने वाली फेमस कंपनी ने पिछले दिनों कार-ड्राइविंग का एक सर्वे करायाण् लगभग पांच हजार लोगों का टेस्ट लिया. इनमें लगभग आधी महिलाएं थी। पता चला कि लगभग पंद्रह प्रतिशत महिलाओं को अच्छी ड्राइविंग के लिए 80 प्रेसेंट से ज्यादा नंबर मिले. जबकि 80 प्रेसेंट पाने वाले पुरूषों की संख्या कम थी. साबित हुआ कि जिन महिलाओं को सड़क पर उतर कर ड्राइविंग का मौका मिला, उन्होंने पुरूषों से अच्छा परफोर्म करके दिखाया. इस सर्वे में पार्टिसिपेट करने वाली महिलाओं ने पूरी दुनिया की औरतों के लिए एक बड़ी जीत हासिल की. अब कौन कहेगा कि औरतें अपनी शारीरिक स्थितियों या सीमाओं की वजह से पुरूषों के मुकाबले खराब ड्राइविंग करती हैं. इस तरह, कार-ड्राइविंग पर अपनी इस जीत के जरिये औरतों ने एक और मोरचे पर मर्दों को पछाड़कर राइट टू इक्वलिटी की दिशा में अपनी हैसियत मजबूत की है. अब अगर टू-व्हीलर के बहाने लड़कियां राइट टू फन के बारे में सोचना शुरू करें तो हो सकता है कि उनके लिए भी उमंगों का एक नया दौर शुरू हों। यानी उन्हें भी मिले उमंगों का adhikar।


आइ-नेक्स्ट 25.08.2008 से साभार