Monday, September 22, 2008

रिलेशन, इमोशन और मीडिया


विष्णु राजगढ़िया
लोग कहते हैं कि अब हम उस दौर में पहुंच गये हैं जहां सेंटिमेंट का कोई मतलब नहीं रहा। मेरे एक मित्र काफी कांफिडेंस से कहा भी करते हैं कि यार मेरे पास सेंटिमेंट-वेंटिमेंट के लिए फालतू टाइम नहीं है। मीडिया के बड़े हिस्से का भी यही कैलकुलेशन है कि अब ह्यूमेन एंगिल और सॉफ्ट स्टोरिज की कदर नहीं। उनके रीडरिशप सर्वे चाहे जितने भी साइंटिफिक होने का क्लेम करते हों, यही कनक्लूड करते हैं कि आज अगर मास मीडिया को इतनी हार्ड कांपिटिशन में सरवाइव करना हो तो धूम-धड़ाका टाइप मैटेरियल ही सहारा है। हालांकि इंस्टेंट एक्साइटमेंट पैदा करके अचानक चर्चा में आने वाले टीवी चैनलों या पत्र-पत्रिकाओं की दुर्गति भी हमने देखी है। जबकि अब एक छोटा-सा एक्जाम्पुल काफी राहत देने वाला है। हिंदी के एक ब्लॉग पर एक लेडी डॉक्टर के संस्मरण पर पाठकों के जबरदस्त रिस्पांस से मीडिया-मैनेजरों को बहुत कुछ सीखने की ओपुरचुनिटी मिल सकती है।रांचीहल्ला डॉट ब्लागस्पॉट डॉट कॉम पर डॉ भारती कष्यप ने लिखा है- ´हाउ टू डांस इन द रैन । ´ इसे अंग्रेजी में पब्लिश किया गया है जबकि ब्लॉग हिंदी का है और इसके मैिक्समम रीडर भी हिंदी के ही हैं। लेकिन इस पोिस्टंग पर पहले ही दिन 14 रीडर का रिएक्शन आना काफी पोजिटिव सिगनल है।पहले देखें कि आई-स्पेशलिस्ट डॉ भारती ने लिखा क्या है। इस संस्मरण के अनुसार डॉ भारती के क्लीनिक में एक सुबह एक ओल्ड-एज पेशेंट आया। उसकी आंख में ग्लूकोमा का आपरेशन हुआ था। उसे पोस्ट-ओपरेटिव ड्रेसिंग करानी थी। उस वृ़द्ध मरीज ने अपना इलाज जल्द करने का आग्रह किया था। डॉ भारती ने उसकी ड्रेसिंग पहले करा दी। इस दौरान यह जानने का प्रयास किया कि आखिर उसे जल्दबाजी क्यों है। पता चला कि उस वृ़द्ध की पत्नी किसी अन्य अस्पताल में भरती है और उसे नाश्ता कराने के लिए जाने की जल्दबाजी है। वृद्ध ने यह भी बताया कि पत्नी पिछले पांच साल से अल्जामर रोग की िशकार है और किसी को पहचानती तक नहीं। अपने पति को भी नहीं। इसके बावजूद उसका पति हर सुबह अस्पताल जाकर उसके साथ ही नाश्ता करता है। इस पर डॉ भारती ने सरप्राइज होकर पूछा कि जब वह आपको पहचानती तक नहीं, इसके बावजूद आप हर सुबह जाकर उसके साथ ही नाश्ता क्यों करते हैं, इस पर वृद्ध ने जवाब दिया कि वह मुझे भले ही नहीं पहचानती हो, मैं तो जानता हूं कि वह कौन है।इस संस्मरण के सहारे डॉ भारती ने बताना चाहा है कि यही वह सच्चा प्रेम है जिसकी कामना हम अपने जीवन में करते हैं। सच्चा प्रेम न तो शारीरिक होता है और न रोमांटिक बल्कि हम जो हैं, जैसे हैं, उसी रूप में एक-दूसरे को पसंद करें, करते रहें, तभी सच्चा प्रेम है। इस संस्मरण को ब्लॉग के एडीटर नदीम अख्तर ने इस सवाल के साथ पब्लिश किया है- ´क्या आज हम अपने जीवन में इस तरह के रिष्तों की डोर मजबूती से थामे रहते हैं? बुढ़ापा सबको आयेगाण् जरूरत है अपने रिश्तों की बुनियाद मजबूत करने की, ताकि अंत समय तक आपको अपने साथी का साथ मिले ।´इस संस्मरण और इसके साथ ऐसे उपदेश को आधुनिक मीडिया-मैनेजर फालतू चीज मानते हैं। अनसेलेबुलण् अनरीडेबुल। ऐसी चीजों से न तो अखबार का सकुZलेशन बढ़ेगा और न टीवी चैनल की रेटिंग। लेकिन इस संस्मरण को मिले रिस्पांस ने साबित कर दिया कि अगर आपके लिए माकेZट ही प्रायोरिटी है तो भी अच्छी चीजों के जरिये भी अपने अखबार की बिक्री और चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते हैं। सनसनी से वन-टाइम एचिवमेंट हो सकता है। लेकिन अच्छी चीजें पढ़़कर जुड़े पाठक किसी सच्चे प्रेम की तरह जीवन भर साथ निभायेंगे। जिस तरह वह वृद्ध अपनी पत्नी का साथ निभाये चला जा रहा है। क्या मीडिया खुद के लिए ऐसे सच्चे साथियों की तलाश करता है? आइ-नेक्स्ट 20-09-2008 में प्रकािशत

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