Tuesday, June 2, 2009

भक्तों का हठयोग

विष्णु राजगढ़िया

तपती गरमियों के इस मौसम में आग के अंगारों पर चलना । वह भी नंगे पांव ! हंसते-खेलते, बिना उफ किये । यह कोई कल्पना नहीं, झारखंड के हजारों श्रद्धालुओं की सामान्य हकीकत है । हर साल गरमी के इस मौसम में मंडा पूजा के दौरान रोंगटे खड़े कर देने वाले ऐसे दृश्य नजर आते हैं । नंगी पीठ में लोहे के हुक चुभोकर पूरे शरीर को ऊंचे खंभे पर लटकाकर देर तक झुलाना भी एक ऐसा ही दृश्य है । ऐसे भक्तों को जीभ में नुकीली छड़ घुसाकर कई दिनों तक छोड़ देना भी सहज स्वीकार्य है । एक गाल से चीरते हुए दूसरे गाल की ओर लोहे का नुकीला मोटा रॉड निकाल दिया जाता है। कुछ भोक्ता अपनी छाती के दोनों ओर मांसल हिस्सों में हुक चुभोकर उनके सहारे दो कलश लटकाते हुए भी देखे जा सकते हैं । जीभ, पेट, पीठ के मांस में तीर, लोहे की छड़ या कांटी डाले जाने के दौरान भोक्ता उफ तक नहीं करते ।
यह किसी सुदूर आदिवासी इलाके की या सुनी-सुनायी, भूली-बिसरी कहानी नहीं । यह आज भी झारखंड के अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों में होता है । राजधानी रांची और अन्य शहरों से जुड़े गांवों और बस्तियों में भी इसका आयोजन सामान्य बात है । मान्यता है कि फूलखुंदी हो या झूलन, किसी भी क्रिया में भक्त को कोई नुकसान नहीं होगा । अगर कोई जख्म होता है तो इसे किसी गल्ती की सजा के बतौर माना जाता है ।
रांची शहर की एक प्रमुख एवं पुरानी बस्ती चुटिया के राम मंदिर में मंडा पूजा का पुराना इतिहास है । अप्रैल के दूसरे सप्ताह में लगभग 15 दिनों तक यहां धूमधाम से पूजा हुई । महादेव मंडा पूजा समिति के अध्यक्ष विजय तिर्की के अनुसार इस बार 68 भक्तों ने फूलखुंदी में हिस्सा लिया, यानी अंगारों पर चले । किसी को जख्म नहीं हुआ । ग्यारह दिनों तक इन भक्तों ने सिर्फ एक वक्त फलाहार लिया । श्री तिर्की बताते हैं कि इसमें शिव एवं पार्वती जी की पूजा होती है । पांच मुख्य भोक्ता बनाये जाते हैं- एक पंडित भोक्ता, एक राजा भोक्ता, एक बाला भोक्ता, एक पट भोक्ता और एक भंडारी भोक्ता । पंडित भोक्ता का काम पूजा कराना है । राजा भोक्ता का काम सभी 68 भोक्ताओं का नेतृत्व करना है । बाला भोक्ता का काम मंदिर की साफ-सफाई करना और पंडित भोक्ता को सहयोग करना है । पट भोक्ता का काम पार्वती देवी के पाटे की देखभाल करना है । लकड़ी के इस पाटे पर पार्वती देवी का वास होता है। भंडारी भोक्ता का काम पूजा एवं आयोजन संबंधी भंडार की देखभाल करना है ।
फूलखुंदी- इसमें भक्तजन नंगे पांव आग पर चलते हैं । जमीन पर क्रिकेट की पिच या चादर की तरह लकड़ी बिछाकर उसे जलाकर दहकते अंगारे के रूप में बदल दिया जाता है । इसकी लगभग दस फीट होती है । इसमें लकड़ी कोयला का भी उपयोग किया जाता है । पूरी तरह अंगारे के रूप में बदलने को अंगोड़ा होना कहते हैं । अंगोड़ा हो जाने पर पहले पुजारी उसमें से कुछ अंगारे अपनी नंगी हथेली पर लेकर मंदिर ले जाता है और देवी-देवताओं को अर्पित करता है । इसके बाद भक्तजन अंगोड़ा पर नंगे पांव चलते हैं । इसमें स्त्री-पुरुष्ा और बच्चे सब शरीक होते हैं ।
झूलन कार्यक्रम - इसमें भक्तों की नंगी पीठ में लोहे का हुक लगाकर रस्से के सहारे लंबे खंभे पर लटकाकर चारों ओर घुमाया जाता है । इस खंभे को चरक स्तंभ या चरक डांग मचान कहा जाता है। इस खंभे में एक चरखी लगी होती है। काफी देर तक भक्त हवा में इसी चरखी पर हुक के सहारे जमीन से 20 से 40 फीट तक की ऊचाई पर हवा में लटके और तैरते या चारों ओर घूमते रहते हैं । इस दौरान वे ऊपर से फूलों की बौछार करते हैं जिन्हें पाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु महिलाएं नीचे अपने आंचल पसारे इंतजार कर रही होती हैं । पुरुष भक्त भी दौड़-दौड़कर अपने हाथों में फूल पाने की कोशिश करते हैं । झूलन से फेंके गये फूलों को काफी कल्याणकारी माना जाता है और इन्हें हासिल करना बड़ा सौभाग्य है। इन फूलों के लिए भक्त स्त्री-पुरुष घंटों खड़े रहते हैं ।
धुंआसी - जमीन पर आग लगाकर खंभे के सहारे भोक्ताओं को सिर नीचे की ओर करके लटका दिया जाता है और आग के आर-पार झुलाया जाता है। इसे धूप-धूवन की अग्नि शिखा पर उल्टे लटकाना भी कहा जाता है ।
मंडा पूजा को कहीं भोक्ता पूजा तो कहीं चरक पूजा भी कहा जाता है। इसे झारखंड में सदान और आदिवासी समुदायों के साथ ही अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जाति के लोग भी चाव से मनाते हैं । इस दौरान आदिवासियों का छऊ नृत्य व जतरा का भी आयोजन होता है । भोक्ताओं की वेषवूषा भी काफी आकर्षक होती है । उन्हें रंग-बिरंगी पोशाकों में कंधे पर चंवर, पैरों में घुंघरू, हाथों में बेंत की छड़ी, मोर का पंख, सिर पर पगड़ी, गले में गुलइची, फूलों की मोटी-मोटी माला इत्यादि से सजाया जाता है । कुछ जगहों पर पुरुष भोक्ताओं को महिलाओं की वेषवूषा में सजाने-संवारने का भी प्रचलन है । उपवास करने वाले भोक्ताओं की मदद या सेवा के लिए घर की किसी एक महिला को विशेष जिम्मेवारी दी जाती है जिसे सोखताइन कहा जाता है । पुरुष भक्त को भोक्ता तथा महिला भक्त को भोक्ताइन कहा जाता है ।
मान्यता के अनुसार यह पर्व अक्षय तृतीया वैशाख से आरंभ होता है, लेकिन प्रचलन में चैत के महीने से ही आयोजन प्रारंभ हो जाता है जो पूरे वैशाख महीने तक चलता है । अलग-अलग गांवों में अपनी सुविधानुसार अलग-अलग तिथियों पर इसका आयोजन होता है । फुलखंदी और झूलन कार्यक्रम इत्यादि कहीं दिन में होते हैं तो कहीं रात भर चलते रहते हैं । प्रारंभ में भक्तजन श्ािव मंदिर में लोटन सेवा करके मां भगवती एवं भगवान शिव की आराधना करते हैं । रात के समय बड़ी संख्या में भक्त महिलाएं सिर पर कलश लेकर तालाब जाती हैं । वहां स्नान एवं पूजा अर्चन के बाद वापस देवी मंडप आकर जलाभिषेक करती हैं । इसके बाद दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर फूलखुंदी करती हैं ।
झारखंडी संस्कृति के विद्वान और रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ रामदयाल मुंडा मानते हैं कि इन दुस्साहसिक कर्मकांडों के वैज्ञानिक कारणों की गहन पड़ताल होनी चाहिए ताकि समाज को अंधविश्वास से निकाला जा सके । इतनी तकलीफदेह प्रक्रियाओं से लोग आखिर किन वजहों से सुरक्षित निकल आते हैं, इतनी पीड़ा कैसे सहन करते हैं और इसका उन पर क्या असर होता है, इसका पता लगाना जरूरी है ।
रांची विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में प्राध्यापक एवं आदिवासी धर्म पर पुस्तकों के लेखक डॉ दिवाकर मिंज के अनुसार यह शक्ति पूजा है । इसके जरिये भक्तजन खुद को और समाज को शुद्ध करते हैं । इन तकलीफदेह क्रियाओं से गुजरकर भक्त खुद को और समाज को यह एहसास कराता है कि उसके पास विशेष शक्ति है और उस पर महादेव की कृपा भी है । श्री मिंज के अनुसार पुरानी राचंी जिले में नागवंशी राजाओं के समय इस पूजा का प्रचलन शुरू हुआ था । आज भी राजधानी रांची की कई पुरानी बस्तियों तथा आसपास के गांवों में हर साल ज्येष्ठ के महीने में इसका आयोजन होता है । श्री मिंज के अनुसार यह किसी विशेष समुदाय का नहीं बल्कि इसमें झारखंड के अधिकांश मूलवासियों की भागीदारी देखने को मिलती है । इसमें महादेव की पूजा को लोग शिव की पूजा से लगाते हैं जबकि झारखंड के आदिवासियों के लिए महादेव की अलग ही परिकल्पना है । आपको हर आदिवासी गांव में कुछ लोग मिल जायेंगे जिनके नाम महादेव होंगे । श्री मिंज के अनुसार यह पर्व नहीं पूजा है और इसमें सामूहिकता की जबरदस्त भावना देखी जा सकती है ।
आग पर चलने और शरीर में लोहा घुसाने के जरिये पूजा का प्रचलन ब्रिटिशकाल में मद्रास रेजीडेंसी क्षेत्र में भी था । उस वक्त अंग्रेजों ने उस क्षेत्र में इस पर रोक लगाने की नाकाम कोशिश की थी । आज भी विश्व के कई क्षेत्रों में इसके विभिन्न् रूप देखने को मिलते हैं । उत्तरी यूनान के गांवों में आग पर नंगे पैर चलकर हर साल मई महीने में संत कंस्टेटाइन एवं संत हेलेन की पूजा की जाती है । बुल्गारिया, दक्षिण अफ्रिका, मलेशिया, सिंगापुर इत्यादि देशों में आज भी इसका प्रचलन है । इसकी शुरुआत ईसापूर्व 1200 से होने के प्रमाण मिलते हैं । 1970 के दशक में अमेरिका के कैलिफोर्निया में एक लेखक टॉली बरकन ने अंधविश्वास मिटाने के उद्देश्य से आग पर चलने का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया । आज भी ऐसे प्रशिक्षण विश्व के कई हिस्सों में दिये जाते हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार इसमें कोई चमत्कार नहीं है। कोयले पर लकड़ी डालकर जलाने और उसके राख बनने के बाद उस पर तेज गति से चलने पर कोई नुकसान नहीं होता। पैर को जलाने के लायक तापमान मिलने से पहले ही उस पैर को आगे बढ़ाकर दूसरा कदम रखे जाने के क्रम में भक्त सुरक्षित निकल जाते हैं ।
पीठ, गाल, जीभ, छाती इत्यादि में लोहे के हुक चुभोने और इसके सहारे झूलने इत्यादि को रिम्स के सर्जरी विभाग के प्राध्यापक डॉ वी के जैन ने चरम आस्था के कारण कष्ट सहने की अद्भुत इच्छाशक्ति के बतौर देखा है ।
आयुर्वेद मे शोध कर रहे सर्जन डॉ सुरेश अग्रवाल के अनुसार आदिवासी समुदाय में जड़ी-बूटियों के सहारे इलाज का काफी समृद्ध ज्ञान है । शरीर में हुक लगाने से होने वाले जख्मों पर जड़ी-बूटियों के लेप के कारण राहत मिलती है ।स्पष्ट है कि इन क्रियाओं को मेडिकल साइंस की नजर में कोई चमत्कार नहीं माना जाता बल्कि हर क्रिया की व्याख्या मिलती है । लेकिन यह भी सच है कि इस व्याख्याओं से बेखबर हजारों श्रद्धालु आज भी हर साल ऐसी क्रियाएं सहज भाव से करते हुए देखे जा सकते हैं, जो आपके रोंगटे खड़े कर दे। आस्था की चरम अवस्था में ही ऐसा संभव है ।

नई दुनिया पत्रिका, 31 मई 2009 में प्रकाशित

1 comment:

L.Goswami said...

यह सब मास हिस्टीरिया के कारन संभव हो पता है ..उन्माद की अवस्था में दर्द का अनुभव नही होता ..अच्छा आलेख