Tuesday, July 7, 2009

अब एक एडिटर को मैनेजर की तरह भी काम करना होगा

प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश से विष्णु राजगढ़िया की बातचीत

मीडिया विमर्श ( मार्च - मई, 2007)

आज अख़बारों को संपादक नहीं, मैनेज़र चाहिए
हरिवंश
मीडिया विमर्श के लिए प्रभात ख़बर के ही एक स्‍थानीय संपादक विष्‍णु राजगढ़ि‍या ने अपने प्रधान संपादक हरिवंश से पत्रकारिता के इस दौर में संपादक के बदलते अभिप्राय पर बात की। उसका एक ज़रूरी अंश हरिवंश जी की अनुमति से हम मोहल्‍ले में बांच रहे हैं। इस अंश में हरिवंश जी ने बताया है कि क्‍या संपादक की भूमिका और उसका काम आज भी वही है या समय के साथ इसमें कोई बदलाव आया है। अगर बदलाव आया हो, तो किस-किस दौर में, किस-किस तरह के बदलाव आये और उनकी क्‍या वजह रही।
http://mohalla.blogspot.com/2007/03/blog-post_4062.html
आधी से ज्यादा राशि नहीं हो पाएगी इस्तेमाल
रांची से विष्णु राजगढ़िया
वेब दुनिया

सूचना अधिकार से समृद्ध हुई पत्रकारिता
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विष्णु राजगढ़िया

मीडिया विमर्श (दिस.06 - फर.07)

एक संपादक के बतौर रघुवीर सहाय
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विष्णु राजगढ़िया
मीडिया विमर्श (मार्च - मई, 2007)

Wednesday, June 3, 2009

झारखंड की इंटर परीक्षा में रसोइया टोपर

झारखंड इंटरमीडिएट कौंसिल का इस वर्ष का परीक्षाफल चौंकाने वाला है। इंटरमीडिएट आटर््स में बेहतर प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों में बेहद निर्धन पृष्ठभूमि वालों की बड़ी संख्या है। राज्य में आइए का टॉपर बनना संजीत महतो एक रसोइये का काम करते हुए अपनी पढ़ाई करता रहा। वह पुरलिया जिले के मुरगुमा का रहने वाला है। वह एक अच्छा एथलीट भी है। वह एक किसान परिवार से आता है और परिवार काफी तंगहाली से गुजारा करता है। वह रांची के चुटिया स्थित ग्रेट इंडिया लॉज के मेस में रहने वाले विद्यार्थियों के लिए खाना बनाकर अपना गुजारा चलाता है। उसे कुल 379 अंक मिले हैं। इतने ही अंक लाकर धनबाद जिले के मैथन की फौजिया रहमान भी संयुक्त टॉपर बनी है। सेकेंड टॉपर नरगिस नाज के पिता गांव में ही एक छोटी सी खाद की दुकान चलाते हैं। नरगिस रांची जिले के चान्हो स्थित वीर बुधु भगत इंटर कॉलेज की छात्रा है।थर्ड टॉपर नीलम केरकेट्टा की मां ने लोकल ट्रेन में बैर-जामुन बेचकर बेटी को पढ़ाया और आज मां-बेटी खुश है कि शिक्षा के जरिये भविष्य संवर जायेगा। नीलम ने लापुंग थाना क्षेत्र के एक सुदूर गांव से प्रतिदिन साइकिल से दस किलोमीटर दूर लुथरेन इंटर कॉलेज आकर पढ़ाई की। राज्य की चौथी टॉपर सलमा खातून के पिता जुम्मन खां एक्साइज विभाग में ड्राइवर के बतौर कार्यरत हैं। सलमा रांची के उर्सलाइन इंटर कॉलेज की छात्रा है।राज्य की पांचवीं टॉपर रंजु कुमारी के पिता संतोष उरांव का 2003 में निधन हो गया था। इसके बाद रंजु की मां फागुनी देवी ने हड़िया बेचकर उसे पढ़ाया। रामगढ़ कॉलेज की रंजू कुमारी ने शादी के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखकर यह मुकाम हासिल किया है। कोल्हान क्षेत्र में सेकेंड टॉपर का स्थान हासिल करने वाला शत्रुघन महतो हाट-बाजार में जूते-चप्पल बेचकर गुजारा चलाता है।
नई दुनिया, 04.06.2009 पेज 11

Tuesday, June 2, 2009

भक्तों का हठयोग

विष्णु राजगढ़िया

तपती गरमियों के इस मौसम में आग के अंगारों पर चलना । वह भी नंगे पांव ! हंसते-खेलते, बिना उफ किये । यह कोई कल्पना नहीं, झारखंड के हजारों श्रद्धालुओं की सामान्य हकीकत है । हर साल गरमी के इस मौसम में मंडा पूजा के दौरान रोंगटे खड़े कर देने वाले ऐसे दृश्य नजर आते हैं । नंगी पीठ में लोहे के हुक चुभोकर पूरे शरीर को ऊंचे खंभे पर लटकाकर देर तक झुलाना भी एक ऐसा ही दृश्य है । ऐसे भक्तों को जीभ में नुकीली छड़ घुसाकर कई दिनों तक छोड़ देना भी सहज स्वीकार्य है । एक गाल से चीरते हुए दूसरे गाल की ओर लोहे का नुकीला मोटा रॉड निकाल दिया जाता है। कुछ भोक्ता अपनी छाती के दोनों ओर मांसल हिस्सों में हुक चुभोकर उनके सहारे दो कलश लटकाते हुए भी देखे जा सकते हैं । जीभ, पेट, पीठ के मांस में तीर, लोहे की छड़ या कांटी डाले जाने के दौरान भोक्ता उफ तक नहीं करते ।
यह किसी सुदूर आदिवासी इलाके की या सुनी-सुनायी, भूली-बिसरी कहानी नहीं । यह आज भी झारखंड के अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों में होता है । राजधानी रांची और अन्य शहरों से जुड़े गांवों और बस्तियों में भी इसका आयोजन सामान्य बात है । मान्यता है कि फूलखुंदी हो या झूलन, किसी भी क्रिया में भक्त को कोई नुकसान नहीं होगा । अगर कोई जख्म होता है तो इसे किसी गल्ती की सजा के बतौर माना जाता है ।
रांची शहर की एक प्रमुख एवं पुरानी बस्ती चुटिया के राम मंदिर में मंडा पूजा का पुराना इतिहास है । अप्रैल के दूसरे सप्ताह में लगभग 15 दिनों तक यहां धूमधाम से पूजा हुई । महादेव मंडा पूजा समिति के अध्यक्ष विजय तिर्की के अनुसार इस बार 68 भक्तों ने फूलखुंदी में हिस्सा लिया, यानी अंगारों पर चले । किसी को जख्म नहीं हुआ । ग्यारह दिनों तक इन भक्तों ने सिर्फ एक वक्त फलाहार लिया । श्री तिर्की बताते हैं कि इसमें शिव एवं पार्वती जी की पूजा होती है । पांच मुख्य भोक्ता बनाये जाते हैं- एक पंडित भोक्ता, एक राजा भोक्ता, एक बाला भोक्ता, एक पट भोक्ता और एक भंडारी भोक्ता । पंडित भोक्ता का काम पूजा कराना है । राजा भोक्ता का काम सभी 68 भोक्ताओं का नेतृत्व करना है । बाला भोक्ता का काम मंदिर की साफ-सफाई करना और पंडित भोक्ता को सहयोग करना है । पट भोक्ता का काम पार्वती देवी के पाटे की देखभाल करना है । लकड़ी के इस पाटे पर पार्वती देवी का वास होता है। भंडारी भोक्ता का काम पूजा एवं आयोजन संबंधी भंडार की देखभाल करना है ।
फूलखुंदी- इसमें भक्तजन नंगे पांव आग पर चलते हैं । जमीन पर क्रिकेट की पिच या चादर की तरह लकड़ी बिछाकर उसे जलाकर दहकते अंगारे के रूप में बदल दिया जाता है । इसकी लगभग दस फीट होती है । इसमें लकड़ी कोयला का भी उपयोग किया जाता है । पूरी तरह अंगारे के रूप में बदलने को अंगोड़ा होना कहते हैं । अंगोड़ा हो जाने पर पहले पुजारी उसमें से कुछ अंगारे अपनी नंगी हथेली पर लेकर मंदिर ले जाता है और देवी-देवताओं को अर्पित करता है । इसके बाद भक्तजन अंगोड़ा पर नंगे पांव चलते हैं । इसमें स्त्री-पुरुष्ा और बच्चे सब शरीक होते हैं ।
झूलन कार्यक्रम - इसमें भक्तों की नंगी पीठ में लोहे का हुक लगाकर रस्से के सहारे लंबे खंभे पर लटकाकर चारों ओर घुमाया जाता है । इस खंभे को चरक स्तंभ या चरक डांग मचान कहा जाता है। इस खंभे में एक चरखी लगी होती है। काफी देर तक भक्त हवा में इसी चरखी पर हुक के सहारे जमीन से 20 से 40 फीट तक की ऊचाई पर हवा में लटके और तैरते या चारों ओर घूमते रहते हैं । इस दौरान वे ऊपर से फूलों की बौछार करते हैं जिन्हें पाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु महिलाएं नीचे अपने आंचल पसारे इंतजार कर रही होती हैं । पुरुष भक्त भी दौड़-दौड़कर अपने हाथों में फूल पाने की कोशिश करते हैं । झूलन से फेंके गये फूलों को काफी कल्याणकारी माना जाता है और इन्हें हासिल करना बड़ा सौभाग्य है। इन फूलों के लिए भक्त स्त्री-पुरुष घंटों खड़े रहते हैं ।
धुंआसी - जमीन पर आग लगाकर खंभे के सहारे भोक्ताओं को सिर नीचे की ओर करके लटका दिया जाता है और आग के आर-पार झुलाया जाता है। इसे धूप-धूवन की अग्नि शिखा पर उल्टे लटकाना भी कहा जाता है ।
मंडा पूजा को कहीं भोक्ता पूजा तो कहीं चरक पूजा भी कहा जाता है। इसे झारखंड में सदान और आदिवासी समुदायों के साथ ही अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जाति के लोग भी चाव से मनाते हैं । इस दौरान आदिवासियों का छऊ नृत्य व जतरा का भी आयोजन होता है । भोक्ताओं की वेषवूषा भी काफी आकर्षक होती है । उन्हें रंग-बिरंगी पोशाकों में कंधे पर चंवर, पैरों में घुंघरू, हाथों में बेंत की छड़ी, मोर का पंख, सिर पर पगड़ी, गले में गुलइची, फूलों की मोटी-मोटी माला इत्यादि से सजाया जाता है । कुछ जगहों पर पुरुष भोक्ताओं को महिलाओं की वेषवूषा में सजाने-संवारने का भी प्रचलन है । उपवास करने वाले भोक्ताओं की मदद या सेवा के लिए घर की किसी एक महिला को विशेष जिम्मेवारी दी जाती है जिसे सोखताइन कहा जाता है । पुरुष भक्त को भोक्ता तथा महिला भक्त को भोक्ताइन कहा जाता है ।
मान्यता के अनुसार यह पर्व अक्षय तृतीया वैशाख से आरंभ होता है, लेकिन प्रचलन में चैत के महीने से ही आयोजन प्रारंभ हो जाता है जो पूरे वैशाख महीने तक चलता है । अलग-अलग गांवों में अपनी सुविधानुसार अलग-अलग तिथियों पर इसका आयोजन होता है । फुलखंदी और झूलन कार्यक्रम इत्यादि कहीं दिन में होते हैं तो कहीं रात भर चलते रहते हैं । प्रारंभ में भक्तजन श्ािव मंदिर में लोटन सेवा करके मां भगवती एवं भगवान शिव की आराधना करते हैं । रात के समय बड़ी संख्या में भक्त महिलाएं सिर पर कलश लेकर तालाब जाती हैं । वहां स्नान एवं पूजा अर्चन के बाद वापस देवी मंडप आकर जलाभिषेक करती हैं । इसके बाद दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर फूलखुंदी करती हैं ।
झारखंडी संस्कृति के विद्वान और रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ रामदयाल मुंडा मानते हैं कि इन दुस्साहसिक कर्मकांडों के वैज्ञानिक कारणों की गहन पड़ताल होनी चाहिए ताकि समाज को अंधविश्वास से निकाला जा सके । इतनी तकलीफदेह प्रक्रियाओं से लोग आखिर किन वजहों से सुरक्षित निकल आते हैं, इतनी पीड़ा कैसे सहन करते हैं और इसका उन पर क्या असर होता है, इसका पता लगाना जरूरी है ।
रांची विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में प्राध्यापक एवं आदिवासी धर्म पर पुस्तकों के लेखक डॉ दिवाकर मिंज के अनुसार यह शक्ति पूजा है । इसके जरिये भक्तजन खुद को और समाज को शुद्ध करते हैं । इन तकलीफदेह क्रियाओं से गुजरकर भक्त खुद को और समाज को यह एहसास कराता है कि उसके पास विशेष शक्ति है और उस पर महादेव की कृपा भी है । श्री मिंज के अनुसार पुरानी राचंी जिले में नागवंशी राजाओं के समय इस पूजा का प्रचलन शुरू हुआ था । आज भी राजधानी रांची की कई पुरानी बस्तियों तथा आसपास के गांवों में हर साल ज्येष्ठ के महीने में इसका आयोजन होता है । श्री मिंज के अनुसार यह किसी विशेष समुदाय का नहीं बल्कि इसमें झारखंड के अधिकांश मूलवासियों की भागीदारी देखने को मिलती है । इसमें महादेव की पूजा को लोग शिव की पूजा से लगाते हैं जबकि झारखंड के आदिवासियों के लिए महादेव की अलग ही परिकल्पना है । आपको हर आदिवासी गांव में कुछ लोग मिल जायेंगे जिनके नाम महादेव होंगे । श्री मिंज के अनुसार यह पर्व नहीं पूजा है और इसमें सामूहिकता की जबरदस्त भावना देखी जा सकती है ।
आग पर चलने और शरीर में लोहा घुसाने के जरिये पूजा का प्रचलन ब्रिटिशकाल में मद्रास रेजीडेंसी क्षेत्र में भी था । उस वक्त अंग्रेजों ने उस क्षेत्र में इस पर रोक लगाने की नाकाम कोशिश की थी । आज भी विश्व के कई क्षेत्रों में इसके विभिन्न् रूप देखने को मिलते हैं । उत्तरी यूनान के गांवों में आग पर नंगे पैर चलकर हर साल मई महीने में संत कंस्टेटाइन एवं संत हेलेन की पूजा की जाती है । बुल्गारिया, दक्षिण अफ्रिका, मलेशिया, सिंगापुर इत्यादि देशों में आज भी इसका प्रचलन है । इसकी शुरुआत ईसापूर्व 1200 से होने के प्रमाण मिलते हैं । 1970 के दशक में अमेरिका के कैलिफोर्निया में एक लेखक टॉली बरकन ने अंधविश्वास मिटाने के उद्देश्य से आग पर चलने का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया । आज भी ऐसे प्रशिक्षण विश्व के कई हिस्सों में दिये जाते हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार इसमें कोई चमत्कार नहीं है। कोयले पर लकड़ी डालकर जलाने और उसके राख बनने के बाद उस पर तेज गति से चलने पर कोई नुकसान नहीं होता। पैर को जलाने के लायक तापमान मिलने से पहले ही उस पैर को आगे बढ़ाकर दूसरा कदम रखे जाने के क्रम में भक्त सुरक्षित निकल जाते हैं ।
पीठ, गाल, जीभ, छाती इत्यादि में लोहे के हुक चुभोने और इसके सहारे झूलने इत्यादि को रिम्स के सर्जरी विभाग के प्राध्यापक डॉ वी के जैन ने चरम आस्था के कारण कष्ट सहने की अद्भुत इच्छाशक्ति के बतौर देखा है ।
आयुर्वेद मे शोध कर रहे सर्जन डॉ सुरेश अग्रवाल के अनुसार आदिवासी समुदाय में जड़ी-बूटियों के सहारे इलाज का काफी समृद्ध ज्ञान है । शरीर में हुक लगाने से होने वाले जख्मों पर जड़ी-बूटियों के लेप के कारण राहत मिलती है ।स्पष्ट है कि इन क्रियाओं को मेडिकल साइंस की नजर में कोई चमत्कार नहीं माना जाता बल्कि हर क्रिया की व्याख्या मिलती है । लेकिन यह भी सच है कि इस व्याख्याओं से बेखबर हजारों श्रद्धालु आज भी हर साल ऐसी क्रियाएं सहज भाव से करते हुए देखे जा सकते हैं, जो आपके रोंगटे खड़े कर दे। आस्था की चरम अवस्था में ही ऐसा संभव है ।

नई दुनिया पत्रिका, 31 मई 2009 में प्रकाशित

Wednesday, January 7, 2009

नामधारी जी, बारह अजूबों से कहां अलग हैं आप?

विश्णु राजगढ़िया
दैनिक हिंदुस्तान के रांची संस्करण में झारखंड विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष श्री इंदर सिंह नामधारी के विचारों को लगातार कई दिनों तक प्रमुखता से प्रकािशत किया गया।बारह अजूबे झारखंड के शीशZक इस श्रृखंला में श्री नामधारी ने उन सारे बिंदुओं को बखूबी उजागर किया है जो आज हर नागरिक के लिए चिंता का विशय है। लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि आज जो कुछ भी है, उसकी नींव एकदम इन्हीं रूपों में रखनेवालों में श्री नामधारी जी का भी नाम है। झारखंड बनने के बाद लंबे समय तक वह झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष रहे। इस नाते उन्हें अवसर था कि लोकतंत्र के इस मंदिर को एक प्रतिश्ठाजनक संस्थान का दरजा देते हुए जनाकांक्षाओं का प्रतिबिंब बनाते। इसके बदले खुलेआम सारी मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए जिस तरह इसे मदिरालय में बदल दिया गया, उसके कुछ नमूने मैं पेश कर रहा हूं। यह सारी चीजें माननीय श्री नामधारी जी के अध्यक्ष काल की हैं जिसे उनके बाद आने वाले अजूबे बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं-
• झारखंड विधानसभा में हुई नियुक्तियों में पारदिशZता और नियमों के अनुपालन की धज्जियां उड़ायी गयीं। इस पर लगातार सवाल उठे, आंदोलन हुए, अदालती कार्रवाई हुई। इसके बावजूद तरह-तरह की धांधली के रिकार्ड बना दिये गये। किस तरह के पद सृजित करके कैसे लोगों को नियुक्त किया गया और उन्हें कैसे प्रोन्नतियां दी गयीं, ऐसे हर प्रसंग चिंताजनक हैं। बाद के दौर में नियुक्तियों के लिए पैसों के लेन-देन संबंधी मामलों पर चला विवाद तो सच्चाई का बेहद छोटा अंश है।
• झारखंड विधानसभा में अधिकारियों और कर्मचारियों की प्रोन्नति में योग्यता, प्रक्रिया और समयसीमा, हर चीज का खुल्लमखुल्ला मजाक उड़ाकर पूरी तरह से मनमानी की गयी। कुछ खास कृपापात्रों को तो एक ही दिन में दो-दो और तीन-तीन बार प्रोन्नति दे दी गयी। सुबह जो आदमी चपरासी था, दोपहर में क्लर्क और शाम तक अफसर बन गया। अखबारों में खबरें छपीं। शर्म उनको मगर नहीं आयी।
• झारखंड विधानसभा परिसर में अनगिनत दुकानें, कैंटिन वगैरह हैं। समानता के अधिकार के नाते हर बेरोजगार को हक है कि वह उसे हासिल करने की प्रक्रिया में शामिल हो। लेकिन इनका आबंटन चोरी चुपके अपने चहेतों के बीच कर दिया गया। फिर, इन दुकानों से किराये की वसूली करके इसे जनता के खजाने में जमा किया जाना चाहिए था। लेकिन कितनी वसूली हुई और किसके खजाने में गयी, यह सवाल ही बना रह गया।
• झारखंड विधानसभा परिसर में 32 कमरों का एक वातानुकूलित गेस्ट हाउस है जो जनता की खून-पसीने की कमाई के खरचे से चलता है। इस गेस्ट हाउस से मिले किराये की पूरी रकम सरकार की ट्रेजरी में जमा करने का नियम है। लेकिन बेहद मामूली रकम जमा की गयी। शेश रकम कहां गयी, कोई बतानेवाला नहीं। कमरों के किराये के लिए जाली सरकुलर के जरिये एक सौ रुपये के बदले तीन सौ रुपये वसूले गये और रसीद भी जाली थमा दी गयी।
• झारखंड विधानसभा के सत्र के दौरान माननीय सदस्यों और अधिकारियों के बीच महंगे उपहार बांटे जाते हैं। ये उपहार किस बजट से बांटे जाते हैं और यह रािश कहां से आती है, यह हरदम विवाद का विशय रहा। स्व। महेंद्र सिंह ने हमेशा इस पर सवाल उठाये और लेने से इंकार किया। उनके पुत्र विनोद सिंह आज उस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष के नाते श्री नामधारी ने सिर्फ इस एक मामले पर नैतिकता का परिचय दिया होता तो शायद हम जनप्रतिनिधियों से बेहतर भूमिका की अपेक्षा कर रहे होते।
मामले और भी हैं लेकिन यहां प्रस्तुत समस्त बिंदुओं पर मीडिया पर लगातार खबरें आयीं हैं और सूचना के अधिकार के जरिये इनके बारे में दस्तावेज हासिल करने के बाद ही इन पर खुलेआम लिखा गया है। ये मामले किताबों और इंटरनेट की भी शोभा बढ़ाते रहे हैं। लेकिन झारखंड विधानसभा की चुप्पी स्वयं गवाह है कि सूचना का अधिकार आने के बाद अब संसदीय विशेशाधिकार के डंडे से लोकतंत्र को हांकना थोड़ा मुिश्कल हो गया है। आज जिस तरह एक नागरिक की जनहित याचिका ने मंत्रियों की अकूत संपति को जांच के घेरे में ला दिया है, वैसी पहल झारखंड विधानसभा से जुड़े मामलों में भी संभव है। कोई भी नागरिक सूचना के अधिकार के जरिये विगत आठ बरस के ऐसे विशयों के दस्तावेज हासिल कर सकता है और हर मामले की न्यायिक अथवा सीबीआइ जांच की मांग लेकर अदालत की शरण में जा सकता है। यह जरूरी है ताकि यह बात साफ हो सके कि झारखंड में लूट और बेशरमी की इस पौध की नींव कब किसने कहां और कैसे रखी। झारखंड के अन्य अजूबों पर ताबड़तोड़ कलम चलानेवालों को यह बताना चाहिए कि वे कहां भिन्न हैं।
(दैनिक हिंदुस्तान, रांची, 5 एवं 6 जनवरी 2009 को प्रकािशत)

Monday, December 22, 2008

हर दिल कुछ कहता है

विष्णु राजगढ़िया

हर इंसान के सीने में एक धड़कता हुआ दिल है. हर दिल को दर्द होता है. यह दर्द किसी को अपना बनाने, किसी का लव पाने के लिए होता है. हर दिल की अपनी कहानी होती है. हर इंसान के अपने सपने होते हैं. लेकिन नार्मली हम किसी कॉमन परसन के सपनों को नहीं समझ पाते. उसके दिल और दर्द को नहीं देख पाते.
फिल्म ´रब ने बना दी जोड़ी´ का शाहरूख खान ऐसे ही एक इंसान के दिल और दर्द को सामने लाता है. राजकपूर की फिल्मों में आम इंसान के सपनों को सामने लाने की कोिशशेें होती थीं. लेकिन नार्मली कॉमिशZयल फिल्मों का नायक प्राय: कोई आम इंसान नहीं बल्कि खास होता है. अगर कोई नायक किसी आम इंसान के रूप में सामने आता भी है तो कुछ ही देर में वह खास आदमी में बदल जाता है. यानी अगर उसे लव करना है या सपने देखने हैं तो उसे स्पेशल परसन बनना ही होगा. आम इंसान का काम तो मेहनत मजूरी करना, फेमिली की रिस्पांसिबिलीटी संभालना है. अगर कोई कॉमन वुमन है तो कीचेन और चिल्डे्रन को संभालना ही उसकी पूरी लाइफ है. लव करना या सपने देखना एक चीज है और रोजी-रोटी चलाना दूसरी चीज. दोनों चीजें भला एक ही आदमी कैसे कर सकता है?
ऐसा माना जाता है कि आम आदमी की जिंदगी में रोमांस के लिए समय कहां? मेरे एक मित्र काफी प्राउडली कहा करते- ´यार हमें तो ये सेंटिमेंट, वेंटिमेंट समझ में नहीं आता. हमें इसके लिए फुरसत कहां है.´ हालांकि यह स्टेटमेंट वह काफी सेंटिमेंटल होकर दिया करते थे. उनकी मासूमियत बता देती थी कि वह कितने सेंटिमेंटल और नरम दिल इंसान हैं. दूसरों की मदद के लिए वह हर वक्त तैयार मिलते. उनके धड़कते हुए दिल को देखना और समझना बेहद आसान था. लेकिन शायद ही कभी किसी ने इसे समझने की कोिशश की हो.
हम अपने आसपास के आम इंसानों के दिल और उसके दर्द को देखने या समझने की कोिशश नहीं करते. यही कारण है कि एक आम इंसान के रूप में शाहरूख खान एक नीरस और अपने काम से मतलब रखने वाला नजर आता है, वहीं अपने हीरोटिक रोल में एक हंसमुख स्मार्ट नौजवान बन जाता है. एक ही आदमी. फर्क सिर्फ मूंछों या चश्मे और ड्रेस का नहीं. असल डिफरेंस सोच का है. सुरींदर साहनी के रूप में वह एक आम इंसान है जो खुद को हर वक्त पंजाब पावर का एक कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी ही समझता है. वह अपने दिल और अपने दर्द को कभी अपनी न्यूली मैरिड वाइफ तक के सामने लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. लेकिन वही आदमी राज के रूप में एक बनावटी चेहरा और नकली नाम लेकर एक दिलफेंक रोमांटिक हीरो में बदल जाता है.
यानी फिर कहूं तो यह डिफरेंस एक्सटर्नल आउटलुक का नहीं बल्कि इंटरनल पैटर्न ऑफ थिंकिंग का है. सुरींदर साहनी के दिल में धड़कता हुआ दिल है. लेकिन उसका दिमाग उसके दिल को कभी एक्सपोज नहीं होना देता. सुरींदर साहनी अपनी खोल में सिमटे रहने वाला इंसान है. इसके कारण उसके दिल को अपने एक्सपोजर के लिए एक आर्टिफििशयल तरीकों का सहारा लेना पड़ता है. अगर सुरींदर साहनी के दिमाग ने उसके दिल को कैद नहीं किया होता तो वह खुद ही डांसिंग पेयर कांपिटिशन में पार्टिसिपेट कर लेता. तब उसे किसी नकली चेहरे की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन अपने असल रूप पर खुद उसे भरोसा नहीं. उसे यह भी कॉंिन्फडेंस नहीं कि उसके लव या डांसिंग टैलेंट पर उसकी पत्नी को भरोसा होगा या नहीं.
कुल मिलाकर पूरा मैटर इंसान को खुद पर और अपने पार्टनर पर कॉिन्फडेंस करने का है. अगर भरोसा होगा तो फिर एक आम इंसान के रूप में भी जॉयफुल लाइफ बितायी जा सकती है. इसके लिए किसी आर्टिफिसियल चीज की जरूरत नहीं पड़ेगी. लेकिन अगर खुद पर या साथी पर भरोसा नहीं तो हर चीज नीरस और थकानेवाली होगी. बनावटी चीजों के सहारे मिलने वाली हंसी भी बस क्षणिक और बनावटी ही होगी. इससे लाइफ में कॉम्पलिकेशन ही बढ़ेेंगे.
इसलिए सुरींदर साहनी के लिए बेहतर यही है कि वह अपनी खोल से तुरंत बाहर निकले. लेकिन वह राज बनने की कोिशश न करे. वह सुरींदर साहनी ही रहे. उसी रूप में अपने धड़कते हुए दिल और उसके दर्द को खुलकर एक्सपोजर का स्कोप बनाये. ऐसा होने पर ही उसकी लाइफ रीयली कलरफुल होगी.
आइ-नेक्स्ट, 23.12.2008 से

http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?pageno=16&editioncode=14&edate=12/23/2008

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Wednesday, November 12, 2008

सेंसेक्स का डाऊनफॉल और हम


विष्णु राजगढ़िया
फेिस्टवलों के पीरियेड में सेंसेक्स का डाऊन हो गया। सबके लिए प्रोब्लम। जिनके पास खोने को कुछ नहीं, उन्हें भी और जिनके पास खोने के बहुत कुछ है, उन्हें भी। जो लुजर थे, उनका अपसेट होना नेचुरल था। लेकिन जिनका सीधे तौर पर कुछ नहीं गया, उनके लिए भी डिस्टर्ब होने के कई जेनुइन या अननेसेसरी कारण थे। ऐसे में धनतेरस पर मोबाइल में आया एक एसएमएस इस सेंसेक्स फेनोमेना पर दिलचस्प कमेंट है। धनतेरस की शुभकामना देते हुए इस एसएमएस में अगले दिन दिवाली और आठ दिन बाद छठ की भी गि्रटिंग्स इनक्लुड थी। उसी एसएमएस में क्रिसमस डे और न्यू ईयर को भी निपटाते हुए बताया गया था कि गि्रटिंग्स का यह किफायती और कॉम्बो पैक है क्योंकि आर्थिक मंदी के इस दौर में आखिर बचत ही तो सहारा है।हालांकि इस सो-कॉल्ड किफायती एसएमएस भेजने वाले मित्र का नेचर मुझे अच्छी तरह मालूम है। वह एसएमएस भेजने के किसी भी ओकेजन को मिस नहीं करता, आगे भी नहीं करेगा। किफायती और कॉम्बो पैक भेजने के बावजूद उसने दिवाली का अलग एसएमएस भेजा। क्रिसमस डे और न्यू ईयर पर भी उससे यही उम्मीद है। इसलिए वल्र्ड इकोनोमी के डाऊनफॉल का कोई इम्पैक्ट उसकी एसएमएस भेजने की प्रैिक्टस पर पड़ता नजर नहीं आता। लेकिन इस एसएमएस में सोसाइटी की प्रेजेंट साइकोलोजी की झलक बेहद दिलचस्प तरीके से देखी जा सकती है।ऐसे लोगों की संख्या काफी बड़ी है, जिन्हें सेंसेक्स और इसके डाऊनफॉल का मतलब नहीं मालूम। जिन दिनों यह ग्रेट फॉल हो रहा था, उन दिनों मेरे जैसे लाखों लोग इससे बेखबर थे। कहीं चर्चा होती भी तो अनसुना कर जाते। उन्हीं दिनों छोटे भाई ने जब सेंसेक्स गिरने पर चिंता जतायी तो मैं सहज पूछ बैठा- यह क्या होता है? मेरे सवाल पर भाई को यकीन नहीं हुआ। उसे लगा कि मैं जानते हुए भी पूछकर उसको टेस्ट कर रहा हूं या फिर रेगिंग कर रहा हूं। वह अविश्वासपूर्वक मेरे सवाल को टाल गया। संभव है कि मेरी तरह खुद उसे भी सेंसेक्स का प्रोपर नॉलेज नहीं हो। लेकिन इतना तो हम दोनों ही जानते थे कि शेयर बाजार में भारी गिरावट है। इससे बड़ी-बड़ी कंपनियों से लेकर शेयर में पैसा लगाने वाले सामान्य लोगों तक को भारी नुकसान हुआ है। माकेZट में कैपिटल की क्राइसिस हो चुकी है।मेरे जैसे जिन लोगों ने कभी शेयर का मुंह तक न देखा हो, वे शुरू में बेफिक्र रहे कि गिरता रहे सेंसेक्स, अपना क्या। लेकिन फिर नौकरियों पर आफत और छंटनी की खबरें आने लगीं। फिर पता चला कि कंपनियों में कामगारों के वेतन में सालाना इंक्रीमेंट पर भी इंपैक्ट आने वाला है। बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने प्रोजेक्टों को बाइंड-अप कर रही हैं। इसी बीच कई एयर लाइन्स कंपनियों ने कुछ शहरों से अपनी उड़ानें बंद कर दीं। जेटलाइन ने रांची से मुंबई की सर्विस बंद कर दी और मुझे अपनी एडवांस टिकट कैंसिल करानी पड़ी। मैंने कभी शेयर नहीं खरीदे लेकिन सेंसेक्स के डाऊनफॉल का अपनी लाइफ पर भी कई तरीके से इंपैक्ट नजर आने लगा। मतलब समझ में आया। शेयर परचेज करो या न करो लेकिन वल्र्ड इकोनोमी और सोसाइटी के हर ट्रेंड को जानना और उसके बारे में क्लीयर कंसेप्ट होना जरूरी है। हम अपनी स्टडी और अपने कैरियर तक खुद को लिमिट भले कर लें लेकिन देश-दुनिया में बह रही हवा के झोंकों से खुद को अलग नहीं रख सकते। इससे यह बात भी समझ में आयी कि लाइफ में वेल्थ का इंपोटेZंस चाहे कितना ही क्यों न हो, इसे पाने का कोई भी शार्टकट रास्ता अल्टीमेटली डिसअपॉइंट ही करता है। शेयर माकेZट में पहले भी इंडियन मिडिल क्लास ने कई बार अपनी जमापूंजी लुटायी है। हर बार तौबा के बाद जो लोग इस मायाजाल में फंसते हैं, उन्हें यह समझ जाना चाहिए कि छोटी पूंजी का बहाव बड़ी पूंजी की ओर होता है। समझना तो यह भी जरूरी है कि आखिर शेयर का यह कैसा खेल है जो कुछ लोगों को बिना मेहनत किये करोड़ों की प्रोफिट दे जाता है और शेष सारे लोगों की हाड़-तोड़ मेहनत की कमाई को एक झटके में गड़प जाता है। इतने सारे लोगों को लॉस हुआ तो कुछ लोगों को प्रोफिट भी हुई ही होगी। जिन्हें डायरेकट लॉस हुआ, और जिन पर इसका इनडायरेक्ट इम्पैक्ट है, वे हमें अपने आसपास दिख रहे हैं। जिन्हें डायरेक्ट प्रोफिट हुई और जिन्हें इनडायरेक्ट प्रोफिट हुई या होगी, वे कौन और कहां हैं?
आइ-नेक्स्ट से साभार, 10.11.2008 पेज 16

Tuesday, September 30, 2008

ई-मेल की गली के पेंचोखम



विष्णु राजगढ़िया
आजकल पोस्टमेन का इंतजार नहीं रहता। न चिटि्ठयों का। अब तो ई-मेल है। जब भी कंप्यूटर पर बैठो, पहले ई-मेल चेक करने की जल्दी। भले ही कितना इंपोर्टेंट वर्क क्यों न छूट रहा हो। ई-मेल देखने से ज्यादा जरूरी काम भला और क्या हो सकता है। इंटरनेट ने मनुष्य को घर-बैठे तत्काल पूरी दुनिया से जोड़ने की अद्भुत ताकत दे दी है। कुछ ही पलों में चाहे जितनी तसवीरें और फाइलें वल्र्ड के किसी भी कोने में बैठे आदमी को भेज दें।


पहले डाकिये के आने का एक टाइम होता था। उसके बाद नेक्स्ट दोपहर तक के लिए इंतजार खत्म। लेकिन अब तो ई-मेल के लिए हर घंटे-आधे घंटे पर इनबॉक्स चेक करना नेसेसरी लगता है। खासकर जिन लोगों का प्रोफेशन कंप्यूटर से जुड़ा है, जो घंटों कंप्यूटर पर बैठते हैं और जिनके लिए इंटरनेट यूज करना बिलकुल सहज काम हो, उनके लिए तो दिन भर में कई-कई बार ई-मेल चेक कर लेना बिलकुल नेचुरल है। उसमें भी जिन लोगों ने दो-तीन ई-मेल आइडी बना रखे हों, उनका तो कहना ही क्या।


जिनके इनबॉक्स में कोई गुड न्यूज की कोई ई-मेल आती हो, उनके लिए कंप्यूटर का मतलब बु़द्धू बक्सा नहीं बल्कि सुखद अनुभव होता है। लेकिन जिनके पास ई-मेल के नाम पर अनवांटेड मेल आते हों, उनकी परेशानी देखते ही बनती है। हर दिन आपके पास तरह-तरह की लाटरी, बिजनेस प्रोपोजल इत्यादि के लुभावने ई-मेल आ सकते हैं। ऐसे ई-मेल से टाइम का कबाड़ा होता है। इसलिए खुद ई-मेल कंपनियों ने स्पैम का एक सेपरेट फोल्डर बना दिया है। आपके नाम पर भेजी गयी ज्यादातर फालतू ई-मेल खुद ही स्पैम फोल्डर में चली जायेंगी। यह जानना सचमुच इंटरेिस्टंग होगा कि किस सिस्टम से ऐसा होता है। हालांकि कई बार आपके लिए उपयोगी और जरूरी ई-मेल भी स्पैम फोल्डर में जा सकता है। इसलिए अपन तो इनबॉक्स के साथ ही स्पैम फोल्डर को भी देखना जरूरी समझते हैं। चेक करने के बाद ही स्पैम फोल्डर को इंपटी करते हैं। वैसे भी स्पैम ई-मेल के सेंडर और सब्जेक्ट को देखते ही समझ में आ जाता है कि इसे खोलने का मतलब टाइम वेस्ट करना है।


लेकिन उस ई-मेल का क्या करें जिसका सेंडर आपका करीबी हो और सब्जेक्ट हो- मोस्ट अरजेंट? ऐसे ई-मेल को आप तुरंत खोलेंगे। लेकिन पता चला कि कुछ भी अरजेंट नहीं। उसमें तो कोई सस्ता जोक या कोई एडवाइस या शुभकामना संदेश या फिर कोई उपदेश है। बहुत से ई-मेल में कोई सब्जेक्ट ही नहीं होगा। लेकिन साथ में कोई ऐसा अटैचमेंट होगा जिसे डाउनलोड करने और खोलने में कंप्यूटर के पसीने छूट जायें। संभव है कि जिस फाइल फोरमेट या सॉफ्टवेयर में वह अटैचमेंट भेजा गया हो, उसे खोलने की सुविधा आपके कंप्यूटर में न हो। ऐसे में वैसे ई-मेल को खोलो तो मुिश्कल, न खोलो तो मुिश्कल। कई बार ऐसे ई-मेल कई-कई दिन इनबॉक्स में पड़े रह जाते हैं, अनखुले। लेकिन इन्हें भेजने वाला आपका कोई फास्ट फ्रेंड, कोई रिलेटिव, कोई कलीग हो सकता है। आपको हर बार लगेगा कि आप उस ई-मेल को न खोलकर उस व्यक्ति की उपेक्षा कर रहे हैं। लेकिन उसे खोलने से टाइम खराब होने का खतरा रहेगा।


ऐसे लोगों के ई-मेल आपके लिए मनोरंजन या ज्ञानवर्द्धन का इंस्ट्ूमेंट हो सकते हैं। लेकिन कोई जरूरी नहीं कि काम के वक्त सबके पास हमेशा टाइम हो। जबकि ऐसे ई-मेल की जरूरत से भी इंकार नहीं कर सकते। आखिर कुछ तो पास टाइम हो। लिहाजा, जो ई-मेल कोई जरूरी मैसेज या किसी प्रेिक्टकल यूज के लिए नहीं बल्कि जस्ट फोर फन या टाइम पास या गि्रटिंग्स के लिए भेजे गये हों, उनके सब्जेक्ट में इस बात को क्लीयर करना हेल्दी प्रेिक्टस मानी जायेगी। साथ ही, एटैचमेंट में हैवी फाइलें और हाइ-रीजोल्यूशन फोटो भेजने के बदले यह कलकुलेट करना जरूरी है कि कैसा एटैचमेंट भेजें जो सामने वाले के लिए प्रोब्लम क्रिएट न करे। अगर भावना में बहकर हर जान-पहचान के आदमी के पास भारी-भरकम ई-मेल भेजने के बजाय सिर्फ जरूरी लोगों के पास ईजी फोरमेट में तथा सब्जेक्ट की लीयर जानकारी के साथ भेजा जाये तो आपके ई-मेल को कई-कई दिनों तक इनबॉक्स में अनरीड मैसेज के रूप में पड़े रहने की दुर्गति नहीं झेलनी पड़ेगी। वरना कभी वह दिन भी आयेगा जब कंप्यूटर आपके करीबी लोगों के भी कचड़ा ई-मेल को खुद ही स्पैम फोल्डर में फेंक देगा।


आइ-नेक्स्ट 01-10-2008

Monday, September 22, 2008

रिलेशन, इमोशन और मीडिया


विष्णु राजगढ़िया
लोग कहते हैं कि अब हम उस दौर में पहुंच गये हैं जहां सेंटिमेंट का कोई मतलब नहीं रहा। मेरे एक मित्र काफी कांफिडेंस से कहा भी करते हैं कि यार मेरे पास सेंटिमेंट-वेंटिमेंट के लिए फालतू टाइम नहीं है। मीडिया के बड़े हिस्से का भी यही कैलकुलेशन है कि अब ह्यूमेन एंगिल और सॉफ्ट स्टोरिज की कदर नहीं। उनके रीडरिशप सर्वे चाहे जितने भी साइंटिफिक होने का क्लेम करते हों, यही कनक्लूड करते हैं कि आज अगर मास मीडिया को इतनी हार्ड कांपिटिशन में सरवाइव करना हो तो धूम-धड़ाका टाइप मैटेरियल ही सहारा है। हालांकि इंस्टेंट एक्साइटमेंट पैदा करके अचानक चर्चा में आने वाले टीवी चैनलों या पत्र-पत्रिकाओं की दुर्गति भी हमने देखी है। जबकि अब एक छोटा-सा एक्जाम्पुल काफी राहत देने वाला है। हिंदी के एक ब्लॉग पर एक लेडी डॉक्टर के संस्मरण पर पाठकों के जबरदस्त रिस्पांस से मीडिया-मैनेजरों को बहुत कुछ सीखने की ओपुरचुनिटी मिल सकती है।रांचीहल्ला डॉट ब्लागस्पॉट डॉट कॉम पर डॉ भारती कष्यप ने लिखा है- ´हाउ टू डांस इन द रैन । ´ इसे अंग्रेजी में पब्लिश किया गया है जबकि ब्लॉग हिंदी का है और इसके मैिक्समम रीडर भी हिंदी के ही हैं। लेकिन इस पोिस्टंग पर पहले ही दिन 14 रीडर का रिएक्शन आना काफी पोजिटिव सिगनल है।पहले देखें कि आई-स्पेशलिस्ट डॉ भारती ने लिखा क्या है। इस संस्मरण के अनुसार डॉ भारती के क्लीनिक में एक सुबह एक ओल्ड-एज पेशेंट आया। उसकी आंख में ग्लूकोमा का आपरेशन हुआ था। उसे पोस्ट-ओपरेटिव ड्रेसिंग करानी थी। उस वृ़द्ध मरीज ने अपना इलाज जल्द करने का आग्रह किया था। डॉ भारती ने उसकी ड्रेसिंग पहले करा दी। इस दौरान यह जानने का प्रयास किया कि आखिर उसे जल्दबाजी क्यों है। पता चला कि उस वृ़द्ध की पत्नी किसी अन्य अस्पताल में भरती है और उसे नाश्ता कराने के लिए जाने की जल्दबाजी है। वृद्ध ने यह भी बताया कि पत्नी पिछले पांच साल से अल्जामर रोग की िशकार है और किसी को पहचानती तक नहीं। अपने पति को भी नहीं। इसके बावजूद उसका पति हर सुबह अस्पताल जाकर उसके साथ ही नाश्ता करता है। इस पर डॉ भारती ने सरप्राइज होकर पूछा कि जब वह आपको पहचानती तक नहीं, इसके बावजूद आप हर सुबह जाकर उसके साथ ही नाश्ता क्यों करते हैं, इस पर वृद्ध ने जवाब दिया कि वह मुझे भले ही नहीं पहचानती हो, मैं तो जानता हूं कि वह कौन है।इस संस्मरण के सहारे डॉ भारती ने बताना चाहा है कि यही वह सच्चा प्रेम है जिसकी कामना हम अपने जीवन में करते हैं। सच्चा प्रेम न तो शारीरिक होता है और न रोमांटिक बल्कि हम जो हैं, जैसे हैं, उसी रूप में एक-दूसरे को पसंद करें, करते रहें, तभी सच्चा प्रेम है। इस संस्मरण को ब्लॉग के एडीटर नदीम अख्तर ने इस सवाल के साथ पब्लिश किया है- ´क्या आज हम अपने जीवन में इस तरह के रिष्तों की डोर मजबूती से थामे रहते हैं? बुढ़ापा सबको आयेगाण् जरूरत है अपने रिश्तों की बुनियाद मजबूत करने की, ताकि अंत समय तक आपको अपने साथी का साथ मिले ।´इस संस्मरण और इसके साथ ऐसे उपदेश को आधुनिक मीडिया-मैनेजर फालतू चीज मानते हैं। अनसेलेबुलण् अनरीडेबुल। ऐसी चीजों से न तो अखबार का सकुZलेशन बढ़ेगा और न टीवी चैनल की रेटिंग। लेकिन इस संस्मरण को मिले रिस्पांस ने साबित कर दिया कि अगर आपके लिए माकेZट ही प्रायोरिटी है तो भी अच्छी चीजों के जरिये भी अपने अखबार की बिक्री और चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते हैं। सनसनी से वन-टाइम एचिवमेंट हो सकता है। लेकिन अच्छी चीजें पढ़़कर जुड़े पाठक किसी सच्चे प्रेम की तरह जीवन भर साथ निभायेंगे। जिस तरह वह वृद्ध अपनी पत्नी का साथ निभाये चला जा रहा है। क्या मीडिया खुद के लिए ऐसे सच्चे साथियों की तलाश करता है? आइ-नेक्स्ट 20-09-2008 में प्रकािशत

Sunday, September 21, 2008

Tuesday, September 16, 2008

Vishnu Rajgadia, as Director of Prabhat Khabar Institite of Media Studies, Ranchi, Dec. 2006


Tuesday, August 26, 2008

राइट टू फन


विष्णु राजगढ़िया
आजकल नये-नये अधिकारों का जमाना है। हर इंडियन सिटिजन को आज राइट टू इनफोरमेशन मिला हुआ है. राइट टू फूड के कंसेप्ट ने स्कूल गोइंग छोटे बच्चों को मीड-डे मिल दिलाया हैं। राइट टू वर्क के एक शुरूआती एक्सपेरिमेंट के बतौर नरेगा कार्यक्रम चल रहा हैं राइट टू हेल्थ की बात हो रही है और इस दिशा में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को एक बड़ा कदम माना जा रहा है. राइट टू एडुकेशन और राइट टू जिस्टस की भी बात जोरों से चल रही हैं ऐसे दौर में सड़क किनारे बड़ा-सा एक होर्डिंग कुछ अलग ही कहानी सुनाता मिला. लड़कियों के लिए बने किसी टू-व्हीलर के इस विज्ञापन में एक मासूम-सा सवाल पूछा गया था- `व्हाई ऑल फन फोर ब्वायज ओनली?` इसमें एक अल्हड़ किशोरी यह दावा करती नजर आ रही थी कि हमें भी मौज-मस्ती का अिèाकार मिले, यानी राइट टू फन. वाह, क्या आइडिया है। वह होर्डिंग किसी टू-व्हीलर की बिक्री बढ़ाने का एडवरटाइजमेंट मात्र ही था. लेकिन उसकी भावना आज देश और दुनिया में बह रही नयी हवा की खबर सुना रही थी. राइट टू फन के रूप में यह राइट टू इक्वलिटी की बात है. लड़कियों को भी लड़कों जितनी स्वतंत्रता मिले. जेंडर का कोई दुराग्रह न रहे. विज्ञापन चाहता है कि लड़कियां भी अब सड़कों पर मजे से टू-व्हीलर उड़ाती चलें और उस कंपनी की बिक्री बढ़े. लड़कियों के लिए टू-वहीलर की राइडिंग सिर्फ ट्रेवलिंग की जरूरत तक सीमित न रहे बल्कि मौज-मस्ती का भी पार्ट बने. क्या वाकई लड़कियों के लिए राइट टू फन का स्लोगन जरूरी है ? क्या किसी ने उन्हें सड़कों पर बाइक या मोटर चलाने से रोका है? इस सवाल के जवाब में हम कह सकते हैं कि इस मेल-डोमिनेटेड सोसाइटी ने फिमेल को सड़कों पर आने और मोटर चलाने दिया ही कब था जो उन्हें रोका जाता? आज भी छोटे शहरों, कस्बों में लड़कियां सड़कों पर साइकिल पर पैंडल मारती हैं तो मानो पुरूषों की आंखों में तीर की तरह चुभती हैं. फिर छोटे शहर हों या महानगर, हर जगह सड़कों पर वाहन चलाती वुमेन को कॉमन प्राबलम से गुजरना पड़ता है. कुछ मनचले जिनमें उम्रदराज लोग भी शामिल होते हैं, जान-बूझकर उनके रास्ते में रुकावट डालते हैं, बगल से गुजरने या पास देने या पास मांगने के दौरान टीजिंग हरकतें करते हैं. सड़क पर बाइक या कार चलाते हुए कोई वुमेन गुजरती है तो अगल-बगल खड़े लोग घूर-घूर कर देखते हैं, कमेंट्स करते हैं. लड़कियां सड़क पर ड्राइविंग करना चाहें तो गार्जियन कहते हैं कि तुम ठीक से नहीं चला पाओगी, एक्सीडेंट हो जायेगा. गार्जियन की चिंता जेनुइन है. लेकिन उनके लिए राहत की एक नयी बात सामने आयी है. देश की एक कार बनाने वाली फेमस कंपनी ने पिछले दिनों कार-ड्राइविंग का एक सर्वे करायाण् लगभग पांच हजार लोगों का टेस्ट लिया. इनमें लगभग आधी महिलाएं थी। पता चला कि लगभग पंद्रह प्रतिशत महिलाओं को अच्छी ड्राइविंग के लिए 80 प्रेसेंट से ज्यादा नंबर मिले. जबकि 80 प्रेसेंट पाने वाले पुरूषों की संख्या कम थी. साबित हुआ कि जिन महिलाओं को सड़क पर उतर कर ड्राइविंग का मौका मिला, उन्होंने पुरूषों से अच्छा परफोर्म करके दिखाया. इस सर्वे में पार्टिसिपेट करने वाली महिलाओं ने पूरी दुनिया की औरतों के लिए एक बड़ी जीत हासिल की. अब कौन कहेगा कि औरतें अपनी शारीरिक स्थितियों या सीमाओं की वजह से पुरूषों के मुकाबले खराब ड्राइविंग करती हैं. इस तरह, कार-ड्राइविंग पर अपनी इस जीत के जरिये औरतों ने एक और मोरचे पर मर्दों को पछाड़कर राइट टू इक्वलिटी की दिशा में अपनी हैसियत मजबूत की है. अब अगर टू-व्हीलर के बहाने लड़कियां राइट टू फन के बारे में सोचना शुरू करें तो हो सकता है कि उनके लिए भी उमंगों का एक नया दौर शुरू हों। यानी उन्हें भी मिले उमंगों का adhikar।


आइ-नेक्स्ट 25.08.2008 से साभार